मेज़ पर वो ख़ाली ग़िलास , बयां कर रहे हैं दास्ताँ पिछली रात की।
हम भी थे और तुम भी थे , बस अल्फ़ाज़ दरमियान न थे।
चादर की वो सरसराहट, सासों में हरारत सी थी।
दिल की सरगोशी से ख्वाबों के निकलने की आहट सी थी।
अल्फ़ाज़ दरमियान न थे, बस कुछ कश्मक़श सी थी।
वो सुरूर, वो मदहोशी बस काफी न थे दूरियाँ मिटाने के लिए...
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